Yusuf

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मैं मर्द हूं


मैं मर्द हूंँ
मैं रोता नहीं हूँ
जब चिथड़े हो जाते हैं मेरे अरमानों के,
मैं उन्हें सीता नहीं हूंँ
मैं मर्द हूंँ
मैं रोता नहीं हूंँ
मैं ज़िम्मेदारी की गठरी कांधे पे लादे रखता हूंँ
कोई सामान न बिखर जाए,
मैं संभल कर चलता हूंँ
मैं मर्द हूंँ
मैं रोता नहीं हूँ
जब कभी नज़रें फिसल जाती हैं मेरी,
तो कदम भी लड़खड़ा जाते हैं
गिरता हूंँ मैं इतनी जोर से,
हड्डियां भी चरमरा जाती है
पता है मुझे!
अभी ना उठा तो
ये बिखरा सामान
फिर ना समेट पाऊंँगा
नज़रें ना उठ पायेंगी मेरी
किसी को,
क्या मैं जवाब दे पाऊंगा?
मैं अपने जख्मों को सहलाता हूंँ
और फिर से उठ जाता हूंँ
मैं मर्द हूंँ
मैं सब-कुछ संभाल लेता हूंँ!
मैं सब-कुछ संभाल लेता हूंँ

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8 Comments

खूबसूरत भाव और अभिव्यक्ति

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Tabassum

03-Oct-2023 09:33 PM

👍👍

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Ayshu

02-Oct-2023 09:06 AM

बेहतरीन और यथार्थ चित्रण

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